Last Updated on 20 August, 2023 by Rahul Chouhan
“…जैसे एक बल्ब है, और उस बल्ब की रोशनी यह बता रही है कि इसका नाता बिजली के साथ जुड़ा हुआ है,
इसी तरीके से एक गुरसिख है, गुरसिख के जीवन में अगर वचन मीठे हैं, कर्म नेक हैं, मन परोपकारी है… तो इसका भाव है कि निरंकार से नाता जुड़ा हुआ है…”
– सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज
“सिमरन – क्या है, और सिमरन हर पल कैसे हो”
सिमरन भक्ति का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसके बारे में हर गुरु-पीर-पैगंबर ने जिक्र किया है, धर्म ग्रंथों में इसका जिक्र है, कि
“स्वास स्वास सिमरो गोबिन्द,
मन अंतर की उतरे चिंद”
हर श्वास में सिमरन करना है, स्वास-स्वास में इसका सिमरन करना है।
और लगभग हर ग्रंथ में इस बात का जिक्र है कि सिमरन क्या है? और सिमरन क्या नहीं है? सिमरन के साथ जुड़ी हुई बहुत सारी बातें हैं, जैसे रटन है, बार-बार किसी शब्द का उच्चारण करना है, क्या वह सिमरन है ? इन्हीं बातों को लेकर ग्रंथों में यह कहना पड़ा कि,
माला तो कर में फिरे , जीभ फिरे मुख माहीं
मनवा तो दह दिस फिरे, ये तो सिमरन नाहीं
यानि कि मन कहीं और है, जुबान कुछ और बोल रही है तो यह सिमरन नहीं है । इन्हीं भावों को लेकर Journey Divine Museum में सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज के आशीर्वाद से यह दर्ज किया गया, कि
“A true devotee lives in constant awareness of Nirankar, making his every breath simran”.
कि जो भक्त है, वह हर समय निरंकार के एहसास में जीवन की यात्रा को तय करता है, तो उसका हर श्वास सिमरन हो जाता है ।
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1. सिमरन – केवल ज़ुबान से नहीं, बल्कि मन से:
सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने अपने प्रवचनों में फ़रमाया, कि कई बार हम जुबान से सिमरन करते हैं लेकिन मन कहीं और होता है। और मिसाल दी सच्चे पातशाह ने, एक भिखारी की।
एक भिखारी सड़क के किनारे बैठा हुआ, कोई नाम ले रहा है, राम-राम, या अल्लाह-अल्लाह बोल रहा है, तो सुनने वाला यह समझ सकता है कि शायद यह सिमरन कर रहा है । लेकिन अगर उस भिखारी के मन की अवस्था को देखा जाए. तो भिखारी यह देख रहा है, कि कौन-कौन मेरी तरफ देख रहा है, कौन-कौन मेरी तरफ आ रहा है, अपनी जेब में हाथ डाल रहा है कि नहीं, मेरे कासे में कुछ डाल रहा है कि नहीं, तो जुबान से तो वह नाम ले रहा है, लेकिन मन कहीं और है, तो बाबा जी ने जिक्र किया – *यह सिमरन नहीं है।*
सिमरन – मन से:
सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने फिर एक दूसरी मिसाल दी, कि कई बार ऐसा होता है कि मन से सिमरन हो रहा होता है, लेकिन जुबान वह नाम नहीं ले पा रही होती है।
उसके लिए फिर बाबा जी ने एक मिसाल दी दूध पी रहे बच्चे की, कि एक बच्चा है, उसको भूख लगी है, वह दूध-दूध कह रहा है, और जब दूध उसको दे दिया जाता है, गिलास भर के और वह दूध पी रहा होता है, दूध गले में है, अब वह दूध-दूध नहीं कह पा रहा है, लेकिन वह दूध को ग्रहण कर रहा है । अगर कोई यह कहे, कि यह तो दूध का नाम नहीं ले रहा तो वह बात नहीं है, क्योंकि वह तो दूध को ग्रहण कर रहा है । तो यह जो भाव है कि भले ही जुबान किसी नाम का उच्चारण नहीं कर रही है, लेकिन मन निरंकार के साथ जुड़ा हुआ है, यही तो सिमरन है। तो भाव यह हुआ कि एक सिमरन है जुबान से, जिसमें मन कहीं और है, ये सिमरन नहीं है । और दूसरा सिमरन है मन से, जिसमें जुबान नाम नहीं ले पा रही है, पर फिर भी सिमरन हो रहा है।
2. सिमरन की पहचान – कर्म से:
अब हमारे मन में यह सवाल आ जाता है, कि हमें यह कैसे पता चले कि हमारा नाता निरंकार प्रभु परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है कि नहीं?
इसके लिए सत्गुरु बाबा जी ने एक बल्ब की मिसाल दी, कि जैसे एक बल्ब है, और उस बल्ब की रोशनी यह बता रही है कि इसका नाता बिजली के साथ जुड़ा हुआ है, और अगर किसी बल्ब से रोशनी नहीं आ रही है, तो भी यह पता चल जाता है, कि इसका नाता टूटा हुआ है ।
इसी तरीके से एक गुरसिख है, गुरसिख के जीवन में अगर वचन मीठे हैं, कर्म नेक हैं, मन परोपकारी है और किसी का दिल नहीं दुखाया जा रहा है, अमानत में खयानत नहीं हो रही है, तो इसका भाव है कि नाता जुड़ा हुआ है। और दूसरी तरफ अगर वचन कड़वे हो गए हैं, कर्म नेक नहीं रहे हैं, मन परोपकारी नहीं रहा है, तो फिर यह इस बात का संकेत है कि नाता टूटा हुआ है, भले ही जुबान से कोई भी नाम लिया जा रहा हो।
3. सिमरन का भाव:
सत्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज ने भी बख्शिश की अपने प्रवचनों में, कि
“सिमरन में भाव भी हों, नहीं तो सिर्फ अल्फाज ही रह जाएंगे”।
दरअसल सिमरन एक भाव ही है, क्योंकि शहंशाह जी ने भी अपने वचनों में भी जिक्र किया, कि *एक मां बैठकर अपने बेटे का नाम नहीं लेती रहती*, बल्कि उस मां का ध्यान अपने बच्चे की तरफ होता है, कि वह सो रहा होगा, वह खेल रहा होगा, और उसको किस चीज की जरूरत है। इसी तरीके से शहनशाह जी ने जिक्र किया कि *एक पत्नी भी बैठकर पति-पति नहीं कहती रहती, बल्कि पति की सेवा में तल्लीन रहती है*। इसीलिए जब सिमरन की बात होती है तो हीर की मिसाल आती है, कि
रांझा-रांझा करदी नी मैं,
आपे रांझा होई
इसमें भाव यह नहीं है, कि हीर बैठकर रांझा-रांझा कह रही है, जुबान से तो हो सकता है, बिल्कुल भी ना कह रही हो, लेकिन मन जो है, वह रांझे के साथ जुड़ा हुआ है। तो इस तरीके से सत्गुरु बाबा जी ने सिमरन का जो भाव है, उसका जिक्र किया कि *हर पल मन में इस निरंकार प्रभु परमात्मा का एहसास बसा हुआ होना।*
तू ही निरंकार :
सिमरन का जो पहला भाव है, “तू ही निरंकार“, तो उसमें यह भाव मन में हो, कि तू ही है, तेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है । सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने मनी-माजरा में 2012 में यह बख्शिश कि
“सुख इसमें नहीं, कि तुम भी हो ,
सुख इसमें है, कि तुम ही हो ”
यानि कि दो चीजें नहीं हैं – एक संसार और एक निरंकार – यहाँ केवल निरंकार ही है, और सारी सृष्टि इसका बदला हुआ रूप है , जिसको हम कहते हैं कि तेरा रूप है यह संसार। यह संसार तेरा बदला हुआ रूप है, और इसको ग्रंथों में भी इसी तरीके से कहा गया है कि
“एक नूर ते सब जग उपजया,
कौन भले को मंदे”।
दरअसल इस बात में बड़ा फर्क है, कि तू भी है, या तू ही है । जब हम यह कह रहे हैं कि तू भी है, इसका मतलब यह है कि दो चीजें हैं, संसार भी है और तू भी है, सृष्टि भी है और तू भी है । लेकिन यह भाव बहुत ऊंचा भाव है, कि तू ही है और सिमरन में इस भाव को लेकर आना, यह भाव बनना कि तू ही है और कुछ नहीं है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।
सारी सृष्टि को इस निरंकार प्रभु परमात्मा का रूप देखना और अपने आपको भी फिर निरंकार प्रभु परमात्मा का ही रूप देखना।
जैसे मिसाल के तौर पर एक सुनार की दुकान में अगर किसी से पूछा जाए कि यहां क्या-क्या पड़ा है, तो बहुत सारे लोग गिन कर बताएंगे, कि इतनी चूड़ियां हैं, इतने हार हैं, इतने कांटे हैं, लेकिन दूसरी दृष्टि से जब देखा जाए, तो दुकान के अंदर कुछ भी नहीं है, सिर्फ सोना ही सोना है, क्योंकि वह सारी चीजें सोने का ही बदला हुआ रूप हैं । तो इस तरीके से जो निरंकार प्रभु परमात्मा है, यह सारी सृष्टि का मूल है, आधार है, और इस दृष्टि से देखना कि सारी सृष्टि तेरा ही रूप है, तू ही है, यह सिमरन का पहला भाव है।
मैं तेरी शरण हां:
और सिमरन का जो दूसरा भाव है, कि मैं तेरी शरण हूँ, इसके पीछे भी बहुत गहरा भाव छुपा हुआ है कि क्योंकि केवल तू ही है, और तो कुछ है ही नहीं, मैं भी नहीं हूँ, *इसलिए जो भाव है कि मेरी कोई कामना नहीं है, मेरी कोई इच्छा नहीं है, मैं तेरी रज़ा में राज़ी हूँ ।* क्योंकि जैसे ही हम कामना करते हैं, इस निरंकार प्रभु परमात्मा से अलग हो जाते हैं, और जैसे ही हम इसकी रज़ा में आते हैं, बिल्कुल इसके साथ एक होकर यह मन की अवस्था बनती है, कि
प्रभु इच्छा को अपनी इच्छा, प्रभु भक्तों ने माना है
पूर्ण का है सब कुछ पूर्ण, ऐसा करके जाना है।
– हरदेव बाणी
सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने यह पावन वचन संपूर्ण हरदेव बानी में दर्ज किये हैं, इसी अवस्था को लेकर, कि जब तेरी रज़ा में मेरी खुशी शामिल हो गई, तो मैं तेरी शरण में हो गया, मेरी कोई कामना नहीं है, मेरा कोई अपना अलग ध्यान नहीं है, मैं हूँ ही नहीं, तो फिर इस निरंकार प्रभु परमात्मा की रज़ा में चलना, जिसको कहा है कि
“हुकुम रज़ाई चलना नानक लिखिया नाल”,
यह जो अवस्था है, ये “मैं तेरी शरण” वाली अवस्था है।
मैंनू बक्श लो :
और तीसरा जो सिमरन का भाव है, कि *मैनू बक्श लो*, दरअसल जब तक यह ब्रह्मदृष्टि बनी रहती है, इस संसार को निरंकार का रूप देखकर विचरण करते हैं, तब तक भूले नहीं होतीं हैं। इसीलिए बाबा जी ने कहा कि,
“मिट जाएगा गुनाहों का तसव्वुर वहां से,
आ जाए गर यकीं, कि कोई देख रहा है”
कि फिर कोई गुनाह नहीं होंगे, फिर कोई भूलें नहीं होंगी, अगर यह यकीन आ जाए कि निरंकार प्रभु परमात्मा मुझे देख रहा है, यानि कि इस की रोशनी में चलना आ जाए।
जैसे सूरज की मिसाल है, कि जब तक हम सूरज की रोशनी में चलते हैं, सूरज की रोशनी का सहारा लेते हैं, तो ठोकर नहीं खाते हैं, लेकिन जैसे ही नजरें रोशनी से इधर-उधर होती हैं, ध्यान भटकता है तो रोशनी होते हुए भी इंसान ठोकर खा जाता है।
ऐसे ही यह ज्ञान के प्रति जागृत होते हुए जब तक यह ब्रह्मदृष्टि बनी रहती है, कि भगवान कृष्ण ने गीता में कहा –
“जो मुझको सब में देखता है और सब को मुझमे देखता है, उससे मैं कभी दूर नहीं होता।”
जैसे ही यह दृष्टि आंखों से ओझल होती है, तो फिर जो भूलें होती हैं, फिर जो कर्म होते हैं, जो कड़वे वचन बोले जाते हैं, उन भूलों को बक्शवाने के लिए फिर गुरसिख कहता है, कि मैंनू बक्श लो, यह भक्ति का आधार है।
4. सिमरन हर पल कैसे हो :
अब जब यह कहा जाता है कि सिमरन हर पल करना है, सिमरन आठों पहर करना है, तो फिर यह जुबान से तो हो नहीं सकता, तो फिर किस तरीके से करना है, कैसे इन वचनों के ऊपर फूल चढ़ाने हैं, इसके लिए सत्गुरु माता सविंदर हरदेव जी महाराज ने बहुत सुंदर तरीका बताया, जब उन्होंने यह कहा कि,
“Believe in God like you believe in sun, not because you see Sun, but because you everything else because of it.”
यानि कि परमात्मा का ध्यान ऐसे करना है जैसे हम सूरज का करते हैं । सूरज का ध्यान हम इस तरीके से नहीं करते, कि बार-बार सूरज को देखते रहते हैं, या बार-बार सूरज का नाम लेते रहते हैं, बल्कि सूरज की रोशनी का हम इस्तेमाल करते हैं। हर पल और हर चीज रज की रोशनी के कारण ही हम देख पाते हैं, और इस बात का एहसास हमें बना रहता है, कि सूरज निकला हुआ है और सूरज की रोशनी के कारण ही हम सब देख पा रहे हैं।
इसी तरीके से यह निरंकार प्रभु परमात्मा है, इसका एहसास करना और इसके ज्ञान के अंतर्गत जीवन की यात्रा को तय करना, इस निरंकार के ज्ञान के अंतर्गत वचन बोलने, इस निरंकार के ज्ञान के अंतर्गत ही हर कदम जीवन का उठाना, यह जो अवस्था है, यह हर पल सिमरन है।
…चाहे वो सेवा है, चाहे सत्संग है, चाहे सुमिरन है यह प्रेम भाव से करना है और निष्काम भाव से करना है। अगर सुमिरन भी करना है इसलिए नहीं, कि दातार से केवल मांगना ही है कि दातार मेरे काम चल जाए, मेरे परिवार हो जाए, मेरा यह हो जाए मेरा वो हो जाए, इसलिए नहीं।
याद भी इसकी इसलिए कि दातार तू ही सब कुछ है, मैं ही तेरी अंश हूं, तू मेरा मूल है। और इस प्रकार से इस निराकार दातार का ध्यान और सिमरन भी उसी भाव से, कामना के तहत नहीं, निष्काम भाव से और प्रेम भाव से। इसी प्रकार से सत्संग भी, यह नहीं कि चलो सत्संग करते हैं, कहीं पर हमारे कनेक्शन बनेंगे और मेरा यह दुनियावी काम हो जाएगा, किसी ना किसी के द्वारा।
तो इस प्रकार से सत्संग भी कोई कामना मन में रखकर नहीं, वो भी केवल और केवल सत्संग की अहमियत को जानते हुए, कि ये संगति पार उतारा करती है, ये हमारे मन को बार-बार सुंदर विचार प्रदान करती है। तो इस प्रकार से सत्संग भी निष्काम और प्रेम भाव से और इसी प्रकार से सेवा भी निष्काम भाव से, उसमें कामना नहीं, जैसे कबीर जी ने भी एक स्थान पर कहा कि,
“फल कारण सेवा करे,
तजे न मन से काम,
कहे कबीर सेवक नहीं,
चहे चौगुना दाम।”
कि कहते हैं कि ये चौगुना दाम चाहता है, कि मैंने ये सेवा की उसके बदले में मुझे इतना प्राप्त हो जाए, तो वही कह रहे हैं कि, फल कारण सेवा करे, फल के कारण नहीं। वो सेवा को समर्पित भाव से अर्पित करता है और इस प्रकार से सेवा करता भी है और फिर किए हुए का मान भी नहीं करता है कि मैं करता हूं जैसे पहले कहा कि लगातार अभी भी आपने पढ़ा कि, तू करता है जगत का तू सबका आधार, कि तू करता है मैं करने वाला नहीं हूं।
“अपना किया कछु ना होए
करे राम होए है सोए”
दातार तू ही करने वाला है यह दातें भी तेरी है और कर भी तू रहा है, नाम मेरा हो रहा है, मैं क्या देने वाला हूं किसी को, यह तू ही है जो तेरी कृपा है, यानि कि सेवा एक तो निष्काम भाव से कर रहा है, ऊपर उसको करके उसका मान भी नहीं कर रहा है, बड़ी सी बड़ी देन देकर भी, फिर भी, खामोश रहकर दातार का शुक्र कर रहा है।
“तो इस प्रकार से ये तन मन धन की सेवा, ये सिमरन, ये सत्संग, भक्ति के ऐसे महत्वपूर्ण अंग, यही भक्त हमेशा निभाने के लिए हमेशा उत्साहित रहता है…”
Thanks for explaining this as most of time we confused what to do exactly dhan nirankar ji